तिमाही में 7.6% रही, जो बाजार की उम्मीद,GST कलेक्शन में मजबूती के संकेत

नई दिल्ली: साल 2023 अपने अवसान पर है। इस समय भी अर्थव्यवस्था के लिए लगातार अच्छी खबरें सामने आ रही हैं। देश के आर्थिक विकास की दर इस वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.6% रही, जो बाजार की उम्मीद से ज्यादा है। केंद्र के साथ राज्य सरकारों ने अपना खर्च बढ़ाया है। GST कलेक्शन में मजबूती के संकेत मिले हैं। बुनियादी ढांचे वाले सेक्टर में अच्छा विकास देखने को मिला है। कारों की बिक्री और हवाई जहाज से सफर का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। महंगाई तेजी से कम हो रही है। कॉरपोरेट सेक्टर भी अच्छी हालत में दिख रहा है। लेकिन चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुई हैं, वे टल जरूर गई हैं।

बाहरी हवाओं का असर ग्लोबल अर्थव्यवस्था में कई तरह की अनिश्चितताएं हैं। दुनिया के कई हिस्सों में संघर्ष छिड़ा हुआ है। रूस-यूक्रेन, इस्राइल-हमास तो है ही, खुद भारत और कनाडा के बीच तनाव बढ़ चुका है। जियोपॉलिटिकल तनाव कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी करते हैं। भारत कच्चे तेल के लिए आयात पर निर्भर है। क्लाइमेट चेंज के माहौल में मौसम की चुनौतियां बढ़ रही हैं। इसका असर खेती और ग्रामीण क्षेत्र की डिमांड पर पड़ेगा।

रुपये और डॉलर का रिश्ता

इंटरनैशनल मोनेटरी फंड यानी IMF ने हाल ही में भारत के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है। इसमें कई आर्थिक मसलों पर IMF के स्टाफ का नजरिया सामने आया। इसमें दो मुद्दों पर खास तौर पर नजर डालने की जरूरत है। पहले भारत में करेंसी मैनेज की व्यवस्था। कहा गया है कि 2023 के दौरान अक्टूबर तक डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट मामूली रही, लेकिन इसके पीछे रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप ने भूमिका निभाई। रिजर्व बैंक ने इस नजरिए पर ऐतराज किया। उसने कहा कि रुपये में उतार-चढ़ाव मार्केट के हिसाब से ही होता है। विदेशी मुद्रा के मामले में जो भी दखल दी गई है, उसका मकसद सिर्फ जरूरत से ज्यादा उतार-चढ़ाव पर अंकुश लगाना है।

कर्ज किस हद तक

IMF के स्टाफ ने जो आकलन किया, उसमें दूसरा मुद्दा था देश का कर्ज। उसमें कहा गया था कि वित्तीय मजबूती के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखना होगा और कर्ज में कमी करनी होगी। इस मामले में लंबी अवधि के नजरिए से रिस्क ऊंचा है, क्योंकि क्लाइमेट चेंज से बचने की खातिर भारत में भारी निवेश चाहिए। भारत ने कहा है कि सरकारी कर्ज के कारण रिस्क बहुत कम है।

घाटे की भरपाई

देश के वित्तीय घाटे को GDP का 5.9% रखने का लक्ष्य तय किया गया है। वित्त वर्ष 2023-24 के आखिरी दौर में ये लक्ष्य पाने के लिए खास मशक्कत करनी होगी। एक तरह से भंवर में गिरे जहाज को बाहर निकालने जैसा काम समझा जा रहा है। वित्त मंत्रालय ने इस मामले में उम्मीद जगाई है। मौजूदा वित्त वर्ष के पहले सात महीने में वित्तीय घाटा 8.4 लाख करोड़ रहा है। पूरे वित्त वर्ष में जितना घाटा रहने का अनुमान था, उसके मुकाबले ये रकम का 45 फीसदी हिस्सा है। 2024 में आम चुनाव सामने हैं। बड़ी मुश्किल है कि कमाई और खर्च के संतुलन को कैसे साधा जाए।

विनिवेश किस हाल में

कमाई को लेकर सरकार विनिवेश नीति पर भरोसा करती है। लेकिन 13 दिसंबर तक सरकार को अपनी कंपनियों में हिस्सेदारी की बिक्री से महज 10,050 करोड़ रुपये ही मिल सके हैं। पूरे वित्त वर्ष के दौरान करीब 51 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया था। यानी अभी तक एक छोटा हिस्सा ही जुटाया जा सका है। भारत पहले भी विनिवेश लक्ष्यों को हासिल करने में पिछड़ता रहा है। इस साल भी वह पीछे रह जाएगा तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं होगी। लेकिन सवाल जरूर उठेंगे कि लगातार पांचवें साल लक्ष्य से पीछे रहने की क्या वजह हो सकती है। क्या विनिवेश कार्यक्रम के मूल ढांचे में ही कोई दिक्कत है?

दूसरे विकल्पों पर भी देना होगा ध्यान

सरकार चाहे तो यह दावा कर सकती है कि कई बार परिस्थितियां उसके कंट्रोल से बाहर होती हैं। जैसे बाजार के हालात का पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि कैसे हैं। निवेशक कितना पैसा लगाना चाहेंगे, यह भी पहले से नहीं कहा जा सकता है। इस स्थिति में सरकार को विनिवेश के भरोसे न बैठकर दूसरे विकल्पों पर ही नजर डालनी होगी।

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